तीसरी खिड़की..

               तीसरी खिड़की..

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गाँव के बीच बने पोखर के 

सामने वाली हवेली में रहती थी वो

वो दिख जाती थी अक्सर

रेशमी दीवारों के पार लंबे घूँघट में 

बेमन अपनी दुबली देह ढोती हुई

शीशे से चमकते आँगन में

जेठ की पूरी दोपहरी भागने के बाद

पैरों के फफोलों पर मलहम मलती हुई


सास-ससुर की बातों के कसैले खंजर 

और पति के कहे–

"बिना माँ-बाप के बोझ को ढो रहा हूं" जैसे 

आत्मा पर घाव करने वाले शब्दों के बाद

वो दिख जाती अक्सर खिड़की के पास बैठी

निहारती हुई एकटक आसमान

 

गाँव में लोग कहते थे–

"ठाकुरों के घर से 

औरतों की बस अर्थी लांघती है दहलीज़ "

लोगों की बातों को सच करती

उसके लिए भी दुनिया घर की सिर्फ

दो खिड़कियों जितनी ही थी

कमरे के पहली खिड़की से निहारा करती दिन

अमलताश के सुनहरे फूलों से लदे पेड़

उन्मुक्त आकाश में बेख़ौफ़ उड़ते पंछी

और देर रात तक सुना करती 

पोखर की ओर से आती टिटहरी की चीखें


रसोई में लगी दूसरी खिड़की से जब झांकती, 

तो पड़ोस की बूढ़ी काकी पूछ लेती

उसके अत्याचारों का प्रतिनिधित्व करते

गालों पर सुर्ख पड़े निशानों के बारे में

वो बस मुस्कुरा कर थमा देती थी उन्हें एक चिठ्ठी

पास ही के गाँव में रहने वाली 

अपनी बचपन की सहेली के लिए

गाँव-गाँव घूम कर 

चूड़ियां बेचने वाली बूढ़ी काकी भी 

ले आती थी उसकी सहेली की चिठियाँ

जिनमें होती थी उसकी कल्पनाओं की दुनिया 

और साथ की कुछ मीठी यादें


पिछली गर्मियों दूर की ननद की बिटिया

सुधा...जो पढ़ती थी शहर के एक नामी कॉलेज में

आयी थी गाँव कुछ दिन छुट्टियां बिताने 

हम उम्र थी दोनों,

एक-दूजे से साझा हुई बातों और दुःखों से

जुड़ गए मन दोनों के

सुधा बताती थी उसे शहर के किस्से 

और सपनों की राह पर दौड़ता जीवन

वो मुस्कुरा कर बस सुना करती थी

उसके पास नहीं था कुछ बताने को


एक दिन उसने अपने बक्से से निकाल कर 

दिखाई सुधा को अपनी कविताओं की 

पुरानी, धूल खाती एक डायरी

जिसमें लिखा था उसने

सिलबट्टे पर पिसता उसका जीवन 

और पीहर में लगी 

बोगनवेलिया के फूलों की बेल की कई यादें


दिन बित गए और

शहर लौटते वक्त सुधा ने रख ली

वो डायरी भी अपने साथ

पहुँच कर शहर छपवाई उसने 

एक किताब उन कविताओं की

"बोगनवेलिया के पुष्प"

देखते-देखते कई प्रतियां छपी और बिक गई

मानों दुनिया आतुर थी उसका दर्द जानने को

उसके दर्द को मिली थी एक पहचान

उसके नाम से पहचाने जाने लगे

ससुराल में सभी

वो जी रही थी अब अपने हिस्से का प्रेम भी


आख़िरकार उसके हाथों में आयी थी

अपने हिस्से की 

एक अलग दुनिया की ओर खुलती

"तीसरी खिड़की" सी प्रतीत होती 

उसकी अपनी किताब


इस तीसरी खिड़की के पार

वो देख रही थी ख़ुद को

बोगनवेलिया की भांति 

विपरीत मौसम,कठोर जमीन 

और प्रतिकूल परिस्थतियों में भी

पनपते और खिलते हुए ।

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