भावों की पांच श्रेणियाँ...

.    भावों की पांच श्रेणियाँ...


(१) भावों की पांच श्रेणियाँ - कुण्डली के द्वादश भावो को - पाँच श्रणियों में विभक्त किया गया है । प्रथम, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम भाव केन्द्र सज्ञा वाले प्रथम श्रेणी में, लग्न, पचम, तथा नवम भाव जिनकी त्रिकोण सज्ञा है द्वितीय श्रेणी मे; द्वितीय तथा द्वादश भाव तृतीय श्रेणी मे; तृतीय, षष्ठ तथा एकादश भाव चतुर्थ श्रेणी में ; तथा अष्टमेश पंचम श्रेणी में आता है ।


( २ ) केन्द्र के स्वामी ग्रह यदि नैसर्गिक शुभ गुरु, शुक्र आदि हों तो अपनी नैसर्गिक शुभता खो देते है ।


(३) त्रिकोण के स्वामी सदा सर्वदा शुभ फल देते हैं; चाहे वे नैसर्गिक शुभ ग्रह हों अथवा पापी |


(४) द्वितीय तथा द्वादश भाव के स्वामी


( क ) यदि एक राशि के स्वामी अर्थात् सूर्य अथवा चन्द्र हों तो (क) शुभ अथवा अशुभ फल सूर्य तथा चन्द्र के बल तथा स्थिति पर निर्भर


करता है ।


( ख ) यदि दो राशियों के स्वामी हों तो फल उस भाव का होगा जिस मे कि ग्रह की द्वादशेतर राशि स्थित हो ।


(५) तृतीय, षष्ठ तथा एकादश स्थान के स्वामी पापी कहलाते हैं | एकादशश स्वास्थ्य के लिये बुरा है, धन के लिये नही ।


( ६ | ( ) अष्टमेश पापी है | बलवान् अष्टमेश आयुदायक तो है परन्तु निर्धन बनाता । है ।


(७) सूर्य तथा चन्द्र को अष्टमेश होने का दोष नही लगता |


(८) अष्टम तथा तृतीय आयु स्थान है । इनसे द्वादश अर्थात् सप्तम तथा द्वितीय मारक स्थान है । निर्बल द्वितीयेश तथा सप्तमेश अपनी दशा अन्तर्दशा मे शारीरिक कष्ट देते है। और यदि आयु का अन्तिम खण्ड आचुका हो तो मृत्यु भी देते हैं ।


(६) केन्द्राधिपत्य से जो शुभ ग्रह अपनी शुभता खो बैठते हैं, से ग्रह उनमे गुरु सब से अधिक शुभ होने के कारण सब से अधिक शुभता खो बैठता है । अत दो केन्द्रो का स्वामी गुरु यदि द्वितीय षष्ठ, अष्टम, द्वादश आदि अनिष्टकारी भावो मे निर्बल होकर स्थित हो तो बहुत अरिष्ट करता है ।


( १० ) ग्रह की अन्तिम शुभता अथवा अशुभता का निर्णय उस की दोनो राशियो के आधिपत्य द्वारा करना चाहिये। जैसे ककं लग्न के लिये सप्तम केन्द्र का स्वामी होने के कारण शनि यद्यपि अपनी अशुभता खो देता है फिर भी अशुभ ही रहता है, क्योकि जिस दूसरी राशि का यह स्वामी है वह कुभ राशि अष्टम मे पड़ती है और अष्ट मेश पापी होता ही है। इसी प्रकार तुला लग्न के लिये मङ्गल द्विती याधिपति होने के कारण सप्तम भाव का जिसमें कि इस की अन्य राशि स्थित है, फल करेगा। अब मङ्गल एक पापी ग्रह है। उसका सप्तम केन्द्र का स्वामी होना उसकी अशुभता का नाश करता है अत तुला लग्न के लिये मङ्गल थोडा शुभ ही फल करेगा। हा, थोडासा भी पाप-प्रभाव यदि इस पर होगा तो अनिष्ट फल देगा । बृषभ लग्न वालो के लिये शनि योग कारक ही मानना चाहिये क्योकि केन्द्र का स्वामी (दशमेश ) होने के कारण शनि अशुभ नही रहता और नव मेश होने के कारण शुभ होता ही है ।


(११) गुरु को दो केन्द्रो के स्वामी होने का दोष लगता परन्तु धनु लग्न अथवा मीन लग्न हो तब नहीं; क्योकि ऐसी दशा मे गुरु लग्नेश भी हो जाता है और गुरु का एक साथ केन्द्र तथा कोण ( लग्न कोण भी है) का स्वामी होना उसे दोषी बनाने की बजाय उलटा योगकारक बना देता है। इसी प्रकार बुध को भी दो केन्द्रों के आधिपत्य का दोष लगता है परन्तु मिथुन अथवा कन्या लग्न वालों के लिये नही; क्योंकि यहा भी बुध केन्द्र तथा कोण का एक साथ स्वामी वन जाता है ।