रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि - “रावण रथी, विरथ रघुविरा”

 रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि -

                “रावण रथी, विरथ रघुविरा”



   युद्ध के मैदान में विशाल सुसज्जित रावण की सेना के सामने राम, बंदर भालुओं की जमात में तीर धनुष लिये नंगे पांव बिना रथ के जमीन पर खड़े थे. रावण की इस वैभवशाली सेना से राम की दीन हीन सेना भला कैसे जीत सकती है. बावजूद इसके अंतत: विजय तो राम की ही होती है और उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि रावण असत्य के रथ पर सवार था और राम सत्य के रथ पर आरूढ़।


रथ पर सवार नाना अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर युद्ध मैदान में पहुंचे रावण को देखकर विभीषण बहुत दुखी हुए.. क्योंकि राम के पास ना तो रथ था ना ही कवच.. विभीषण के मन में सवाल थे..कि राम इस तरह युद्ध कैसे जीत पाएंगे.. अपनी आशंकाओं को लेकर वो राम के पास गए.. राम ने उनकी स्थिति पहचानकर मुस्कुराते हुए कहा, रावन के पास जो रथ और अस्त्र-शस्त्र हैं वो विजय वाले नहीं.. बल्कि पराजय के लिए हैं.. विजय का रथ मेरे पास है.. और जीत मेरी होगी.. 


आखिर युद्ध से पहले ही राम को इतना आत्मविश्वास स्वयं पर कैसे था.. राम के पास वैसा कौन साथ रथ था.. और कौन से अस्त्र शस्त्र थे.. जिनपर राम को पूरा भरोसा था.. आइये जानते हैं-


इस विजय रथ को तुलसीदास ने इन शब्दों में पिरोया है--


रावण रथी विरथ रघुवीरा.


देख विभीषण भयऊं अधीरा..


अधिक प्रीति मन भा संदेहा.


बंदि चरन कह सहित स्नेहा..


नाथ ना रथ नहीं तन पद त्राना.. 


केहि विधि जीतब वीर बलवाना.


सुनहुं सखा कह कृपा निधाना..


ज्यों जय होई स्यंदन आना..


सौरज धीरज तेहिं रथ चाका.


बल विवेक दृढ ध्वाजा पताका


सत्य शील दम परहित घोड़े


क्षमा दया कृपा रजु जोड़े..


ईस भजन सारथि सुजाना


संयम नियम शील मुख नाना


कवच अभेद विप्र गुरु पूजा


यही सम कोउ उपाय ना दूजा


महाअजय संसार रिपु, जीत सकहि सो वीर


जाके अस बल होहिं दृढ, सुनहुं सखा मतिधीर


यानी.. शौर्य और धीरज उस विजय रथ के चक्के हैं.. बल विवेक और दृढता.. ध्वज पाताका हैं.. सत्य शील दम और परहित चार घोड़े हैं.. और क्षमा दया कृपा त्रिगुन रस्सियां हैं.. ईश्वर भजन उस रथ का सारथि है.. संयम नियम शील आदि सहायक हैं... विप्र जनों और गुरुओं की पूजा हमारा अभेद्य कवच है.. इस वीर के पास ये सब है.. उसे संसार का कोई भी योद्धा जीत नहीं सकता है