आत्मज्ञानही....

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                       आत्मज्ञानही....



आत्मज्ञानही परमात्मा का ज्ञान है प्रत्येक व्यक्ति शरीर नही आत्मा है इसलिए परमात्मा भी वही है इसी कार ण आत्मज्ञान होने पर वह,, अहं ब्रह्मसिम,, कह सकता हैa किन्तु उसका अहंकार शेष है तो वह ऐसा नही कह सकता। 

अहंकारके कारण ही वह जीवात्मा और ईश्वर मे भेद देखता है।

उसेद्वैत ही दिखाई देता है।

तब वह''ईश्वर पुत्र'' कहता है । यह भिन्नता जीवात्मा के तल तक की है। शुद्ध आत्मा और ईश्वर मे भिन्नता नही है।

आत्मज्ञानके बाद उके सभी कार्य नाटक की भाति होते रहते है जिनसे अलग रहकर दृष्टा मात्र हो i होता है। नैतिकता का सम्बन्ध मन तक ही सिमित है कि उसे बुराई से बचा ले।h धर्म इस मन के पार की अवस्था है आत्मज्ञान से ही मुक्ति होती है। नियम संयम भी मन तक ही है आत्मज्ञान पर मनुष्य- कृत नही, ईश्वरीय नियम ही महत्त्वपूर्ण हो जाते है। शास्त्र पढ़ने,कर्म एवं आचरण से ज्ञान नही होता है स्वमं देखने से मिल ता है ऐसे ज्ञान कीअभिव्यक्ति भी नही होती ।आत्मा के उपर जमी धूलि को झाडे़ बिना आत्मानुभव सम्भव नही। आत्मज्ञान में मृत्यु का अनुरूप होता है तभी अमृत की उपलब्धि होती हैo मृत्यु से ही नया जीवन मिल ता है पुराने को ढोनो से क्या नया मिल सकता है नये के लिये पुराने का त्याग करना आवश्यक है

आत्मानुभुति के समय वह स्वम को शरीर से भिन्न देख लेता है तभी उसको प्रतीति होती है कि मै शरीर नही आत्मा हूँ। तभी उसे अमृतत्त्व का अनुभव होता है

धर्मचेतना से जुडा़ हुआ शास्त्र है दर्शन की यहाँ गति नही है kदर्शन जानने वाला धर्म को उपलब्ध नही हो सकता।

यही शाश्वत सत्य है आत्मा की जाग्रदादि पाँच अवस्थायें एवं ओंकार कीa पंच मात्राओं का परस्पर संबंध है

अ,उ, म, जाग्रत अवस्था, बिन्दुस्वप्नावस्था,नादसुषुप्त्ति एवं शक्ति, तुरीयावस्था एवं शांता तुरीयातीत अवस्था है इनका लय आत्मा मे कर देना चाहिए ।

धारणा योग प्राणों का प्रयोग विधि जानकर योगियों ने प्राणों कोs जीवात्मा के साथ अन्य शरीर मे प्रवेश और उस दुसरे शरीर से पुनः अपनी काया मे प्रवेश कि सिद्धि अल्पकाल मे ही प्राप्त करने के लिए अंगुठा, गुल्फ, जंघाए, गुदा, अण्डकोष, लिंग, hनाभि, ह्रदय, ग्रीवा, ठोडी, नासिका, भ्रमध्य, ललाटाग्र, तथा सहस्त्रार को प्राण सी धारणा का स्थान बताया है।

आत्मा और मनस् के समीकरण या एकीकरण के अभ्यास oद्वारा वायु को धारण करके उत्क्रान्ति तथा पर काया प्रवेश आदि सिद्धिया शीघ्र प्राप्त की जा सकती है ।

कालवञ्चन पृथ्वी, जल, वायु,आकाश, के लं,वं,रं,यं,हं,बीज रूप मे कण्ठ, भ्रमध्य, ह्रदयk, नाभि तथा समस्त अंगों मे प्राण की धारणा करने के नाम कालवञ्चन है इन बीजों के साथ इनकी शक्तियाँ कि आत्मा के साथ संयोग करने पर इन तत्वों पर विजय प्राप्त की जा सकती है ।

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