मौर्योत्तर काल एक नजर में
👉मौर्योत्तर काल एक नजर में...👇
👉मौर्योत्तर कालीन बाह्य शासकों में यू-ची प्रजाति महत्त्वपूर्ण है जिसे बाद में कुषाण कहा गया। इस जाति के नरेशों ने न केवल भारतीयत्व को बहुत शीघ्र आत्मसात कर लिया था बल्कि इस वंश के सम्राटों ने बौद्ध धर्म के संरक्षक के महान् दायित्व का भी निर्वाह किया। भारतीय इतिहास में कुषाण-काल को विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
यूची, तोखारि के नाम से भी जाने जाते थे। यह कबीला पाँच शाखाओं विभाजित था। ये उत्तरी मध्य एशिया में निवास करते थे और चीन के पड़ोसी थे। कुजुल कदफिस नामक कुषाण शासक ने यूची कबीला को संगठित किया। कुजुल कदफीसस ने कश्मीर और सिंधु नदी के पश्चिम का क्षेत्र जीता। उसका उत्तराधिकारी विम कदफिसेस हुआ।
विम कदफिसेस ने सिंधु नदी के पूर्व का क्षेत्र जीता। उसने रोमन पद्धति पर सोने के सिक्के चलाये। इसका आधार वजन होता था।
कुजुल की कुछ मुद्राओं में धर्मतीर्थ के स्थान पर सच्च धरम् तिथ अंकित पाया जाता है। यह उसके नवीन धर्म को स्वीकार करने की ओर संकेत था, संभवत: बौद्ध धर्म की। उसकी परवर्ती मुद्राओं पर राजत्व उपाधि मिलती है- महरजस महत्तस कुषहन कुयुल कफस एवं महरजस राजातिरजस कुयुल कफस। यह इस बात का संकेत है कि उसे स्वतंत्र सत्ता प्राप्त हो गई थी। उसकी कुछ मुद्राओं पर रोमन प्रभाव देखा जाता है।
मुद्राशास्त्रियों की मान्यता है कि रोमन प्रकार का सिर रोमन सम्राट् आगस्ट्स (27 ई.पू. से 14 ई.पू.), टिबरिस (14 ई.पू. से ई. सन् 37 ई.पू.) एवं क्लाडियस (41 ई.पू. से 54 ई.पू.) आदि के प्रभाव का बोध कराता है। उसकी ताम्र मुद्राओं पर विशेष रूप से यह प्रभाव देखा जाता है।
विम कदफिसेस- चीनी इतिहासकारों से जानकारी मिलती है कुजुल-कदफिसेस के बाद उसका पुत्र यन-काओ-चेन (विम कैडफिसेस) ने सत्ता प्राप्त की। सिक्कों में उसे महाराज उमियम कवाथस, वेम या विम कडफाइसिस कहा है। भारत (तियन-चिओ) विजय का श्रेय इसी राजा को प्राप्त हुआ। उसके सिक्कों के विस्तृत प्रचलन एवं महाराज राजाधिराज जनाधिप जैसी उपाधियों से प्रमाणित होता है कि उसका अधिकार सिन्धु नदी के पूर्व पंजाब एवं संयुक्त प्रान्त तक था।
उपलब्ध मुद्राओं से भारतीय प्रदेशों को अधिकृत किया जाना प्रमाणित होता है। उसकी मुद्रायें पंजाब एवं मथुरा से प्राप्त हुई हैं। चीनी ग्रंथ हाउ हान-शू में जिक्र आया है कि उसने तिएन-चिओ (भारत) जीता एवं इन क्षेत्रों का प्रशासन अपने प्रतिनिधि द्वारा संचालित किया। लद्दाख में खलत्से नामक स्थान पर 187 तिथि (32 ई.) के लेख में उविम कवथिस नामक राजा का विवरण आया है।
मथुरा के निकट माँट के राजाधिराज देवपुत्र कुषन पुत्र षहि वेम तक्षम (विम कदफिसेस) की मूर्ति मिली है। कहा गया है कि विम कदफिसेस का राज्य पूर्वी उत्तर-प्रदेश के वाराणसी क्षेत्र तक विस्तृत था। संभवत: इसका आधार यह रहा कि कनिष्क शासन-काल के दूसरे एवं तीसरे वर्ष के लेख कौशाम्बी (प्रयोग) एवं सारनाथ से उपलब्ध हुए हैं।
विम कैडफिसेस से उत्तराधिकार में ही उक्त प्रदेश कनिष्क को प्राप्त हुए होंगे, क्योंकि राज्यारोहण के दूसरे एवं तीसरे वर्ष में इस विशाल राज्य को विजित करना संभव प्रतीत नहीं होता। बक्सर (बिहार) से विम की कुछ मुद्राओं की प्राप्ति के आधार पर यह विचार रखा गया है कि उसने बिहार तक सम्पूर्ण उत्तरी भारत को हस्तगत कर लिया था। किन्तु प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव में इस मत का समर्थन नहीं किया जा सकता। दक्षिण में उसका राज्य नर्मदा तक फैला हुआ था।
ऐसी मान्यता है कि शक क्षत्रप उसके अधीनस्थ शासक थे। अधिकांश विद्वान् उसका साम्राज्य विस्तार मालवा, मथुरा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश एवं उत्तर पश्चिम में लद्दाख और गन्धार तक ही स्वीकार करते हैं।
विम कदफिसेस की विस्तारवादी नीति के फलस्वरूप उसका चीन से भी संघर्ष हुआ। चीन का पश्चिम एशिया से सम्बन्ध सम्राट् वु-टी (140-86 ई.पू.) के समय स्थापित हुआ जब चांग-किन को कुषाणों की राजधानी की यात्रा पर भेजा। वह लौटकर ई.पू. 120 में आया था किन्तु चीन का 23 ई. में उसके दक्षिण पश्चिम में स्थित राज्यों से सम्बन्ध समाप्त हो गया था।
प्रथम हान वश का जब पतन हो रहा था, इसके लगभग 50 वर्ष बाद चीनियों की महत्त्वाकांक्षा जागृत हुई। चीनी सेनानायक पान-चावो या पान-चाऊं ने 73 से 102 ई. के मध्य कोथान (कुनलुन के उत्तर में 80 [देशान्तर 37] अक्षांस) से विजय अभियान प्रारम्भ किया एवं अपने देश के ध्वज के साथ पार्थिया को पार करते हुए केस्पियन सागर तक पहुँच गया। स्मिथ ने जिक्र किया है कि चीनी सैन्य शक्ति का विस्तार कुषाण साम्राज्य के लिए खतरे की घंटी बन गया था, विशेष रूप से विम कदफिसेस के लिए। फलत: उसने 87 ई. में चीन साम्राज्य से समानता की चर्चा करते हुए चीनी राजकुमारी से विवाह का प्रस्ताव रखा।
इस प्रस्ताव को अपनी गरिमा के विपरीत मानते हुए पान-चाओ (सेनानायक) ने कुषाण दूत को गिरफ्तार कर वापस भेज दिया। अत: कदफिसस द्वितीय (विम) ने 70 हजार घुड़सवारों की सेना तैयार की और अपने गवर्नर भाई के नेतृत्व में शुंग-लिंग पर्वत श्रृंखला से आगे तक भेजा किन्तु कुषाण सेना को आसानी से परास्त कर दी गई। परिणामस्वरूप कदफिसँस द्वितीय को कर देना पड़ा।
पश्चिम से रोमन सम्राट् के साथ विम कदफिसस के मैत्री सम्बन्ध थे जैसी उसके तथा मैसोपोटामिया के रोमन शासक के बीच सद्भावना विनिमय की घटना से जानकारी मिलती है। कहा गया है कि इस मैत्री सम्बन्ध की पुष्टि में एक प्रमाण तो रोमन साम्राज्य के साथ, जो उसके राज्य से लगा हुआ था किसी प्रकार के संघर्ष का अभाव ही है। कदफिसस सम्राटों की विजय से भारतवर्ष, चीन एवं रोम साम्राज्य के बीच व्यापार आदि में पर्याप्त उन्नति तथा वृद्धि हुई।
सिल्क, मसाले तथा हीरे-जवाहरात के मूल्य के रूप में रोमन साम्राज्य का स्वर्ण भारत वर्ष में प्रचुर मात्रा में निरन्तर आने लगा। स्वर्ण की अधिकता से प्रभावित होकर कदफिसेस-द्वितीय ने सोने के सिक्के प्रचलित करवाये। उसके द्वारा जारी सोने के सिक्कों पर उल्लेखनीय भारतीय प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जबकि उसके पिता द्वारा जारी किये सिक्कों में रोमन दीनारी की नकल थी, जो रोमन व्यापार की शुरूआत के साथ मध्य एशिया में प्रचलित हो रही थी। यद्यपि स्वर्ण मुद्राओं पर भारतीय प्रभाव था परन्तु उसके द्वारा प्रचलित सोने के सिक्कों का विचार रोम आरिस से आया तथा मान (मानक) रोमन था।
कदफिसेस द्वितीय की मुद्राओं के पृष्ठ भाग में प्राय: शिव का अंकन मिलता है एवं खरोष्ठी में महरजस राजाधिराज सर्वलोग इश्वरस, महिश्वरस् विमकदफिसस त्रतरस अंकित है अर्थात् महान् राजा, राजाओं का राजा, समस्त संसार का स्वामी, माहेश्वर (धर्म) रक्षक। सर्वलोग इसवस की व्याख्या में सरकार की मान्यता है कि यह शिव के प्रति समर्पण का प्रतीक है एवं उसके शैव होने को इंगित करता है।
कुछ सिक्कों पर सोटर-मेगस नामक कुषाण देखा जाता है। वेकोफर का मत है कि विमकदफिसेस एवं सोटर-मेगस की मुद्रायें काबुल घाटी से उत्तर प्रदेश तक पाई जाती हैं और दोनों की मुद्रायें एक सी प्रतीत होती हैं। इतना ही नहीं, उन पर अंकित दोनों की उपाधियाँ एक जैसी हैं अर्थात् विम कदफिसेस एवं सोटर-मेगस एक ही कुषाण नरेश का नाम है। सोटर-मेगस विम की उपाधि कही गई। किन्तु इस मान्यता पर सन्देह का कारण विम की मुद्राओं पर सोटर-मेगस की उपाधि नहीं पाया जाना है। विमकदफिसेस ने स्वर्ण मुद्रायें भी जारी की थीं जबकि सोटर-मेगस की एक ताम्र मुद्रा उपलब्ध हुई है।
सोटर-मेगस, विम कदफिसेस का गवर्नर था, क्योंकि हाउ-हान-शू नामक चीनी ग्रंथ में विवरण आया है कि विम ने अपने भारतीय प्रदेशों के शासन संचालन के लिए गवर्नर नियुक्त किया था। अत: उक्त गवर्नर सोटर-मेगस ही रहा होगा। किन्तु किसी भी राजा द्वारा अपने अधीनस्थ गवर्नर को स्वतंत्र रूप से मुद्रायें जारी अधिकार दिये जाने की जानकारी नहीं मिलती। यदि गवर्नर की हैसियत से मुद्रायें जारी की जाती हैं तो उसके स्वामी का उल्लेख अवश्य किया जाता है।
यह भी विचार रखा गया है कि भारतीय प्रदेशों में विम का अर्द्ध-स्वतंत्र गवर्नर था जिसका उल्लेख 65 ई. के पतंजर अभिलेख एवं तक्षशिला 79 ई. (136 तिथि) अभिलेख में आया है। विम के अन्तिम दिनों में संभवत: यह स्वतंत्र शासक के रूप में शासन करता था एवं उसने अपना प्रभाव काबुल व कन्धार तक बढ़ा लिया था।
कनिष्क
भारत के कुषाण राजाओं में कनिष्क सबसे शक्तिशाली और प्रतापी सम्राट् था। वह एक महान् विजेता था। लेकिन इससे भी अधिक महत्त्व उसके बौद्ध धर्म के संरक्षक होने में है। इस रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य की सैनिक योग्यता तथा अशोक का धार्मिक उत्साह दोनों उसे समान मात्रा में उपलब्ध थे। कनिष्क ने सीधे कदफिसेस द्वितीय से उत्तराधिकार प्राप्त नहीं किया था। जैसा कि विदित है कि सोटर-मेगस नामक कोई अज्ञात शासक कदफिसेस द्वितीय का उत्तराधिकारी था। कदफिसेस द्वितीय की मृत्यु तथा कनिष्क से उसका सम्बन्ध ज्ञात नहीं है।
किन्तु कनिष्क के प्रारम्भिक काल के प्रमाण उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुए हैं। कनिष्क भी कुषाणों की किसी एक शाखा का प्रतिनिधित्व करता था, जो भारत में अपना भाग्य बनाने का प्रयास कर रहे थे और इस प्रयास में उन्हें सफलता भी मिली। स्मिथ के अनुसार कनिष्क कदफिसेस द्वितीय का पुत्र नहीं था।
उसके पिता का नाम वजिहिस्का था एवं वह लघु यू-ची प्रजाति का था। इस शाखा के लोग कोथन में निवास करने लगे थे जबकि उसके पूर्वाधिकारी बृहतर यू-ची से सम्बद्ध थे। इस तरह कनिष्क के कदफिसेस का उत्तराधिकारी होने का प्रश्न एक विवाद का विषय बन गया है। इससे कहीं अधिक विवादास्पद तथ्य उसके राज्यारोहण की तिथि रही है।
कनिष्क की तिथि के विषय में इतिहासकारों में बड़ा मत-भेद है। विभिन्न इतिहासकारों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं। डॉ. फ्लीट के अनुसार कनिष्क का राज्यारोहण 58 ई.पू. हुआ। मार्शल, स्टेन कोनोव तथा स्मिथ ने कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 125 ई.पू. तथा 144 ई.पू. माना है। डॉ. चौधरी ने इन इतिहासकारों के तकों का तर्कसंगत खण्डन किया है। फरग्यूसन ओल्डून बर्ग, टामस बनर्जी, रैप्सन एन.एन. घोष तथा डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने 78 ई. को कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि माना है। यही तिथि आज सर्वाधिक विश्वसनीय मानी जाती है।
जैसा कि डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है, इस अनन्त वाद-विवाद के बावजूद हमें कनिष्क द्वारा 78 ई. के शक संवत् का संचालन सही जान पड़ता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसने एक संवत् चलाया था, क्योंकि गणना-पद्धति उसके उत्तराधिकारियों द्वारा भी प्रयुक्त हुई और उत्तर भारत में प्रचलित हम किसी अन्य संवत् को नहीं जानते जिसका आरम्भ दूसरी शती के प्रथम चरण में हुआ था जो तिथि कनिष्क के राज्यारोहण से सम्बन्धित है।
कनिष्क के समय की बौद्ध संगीति- बौद्ध धर्म के इतिहास में कनिष्क के राजत्व काल में होने वाली चतुर्थ बौद्ध संगीति का विशेष महत्त्व है। इस चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन कश्मीर के कुण्डलवन विहार में किया गया था। बौद्ध धर्माचार्य वसुभित्त चतुर्थ संगीति के अध्यक्ष थे और अश्वघोष उपाध्यक्ष थे। उस बौद्ध संगीति में पाँच सौ विद्वानों ने भाग लिया था जो देश के प्रत्येक मार्ग से आए थे।
संगीति का अधिवेशन छ: मास तक होता रहा। संगीति में बौद्ध धर्म ग्रन्थ के जटिल एवं विवादास्पद प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया गया। इस सम्बन्ध में जो वाद-विवाद हुए, उनको भाष्य रूप में संकलित कर लिया गया। ये संकलित भाष्य विभाषा शास्त्र कहलाये। लिपिटिक पर एक प्रामाणिक भाष्य की रचना हुई जिन्हें कनिष्क ने ताम्र पत्रों पर उत्कीर्ण कराया और उन्हें एक स्तूप में सुरक्षित रख दिया।
निर्देशन में ई.पू. 58 में बौद्ध धर्म की चतुर्थ संगीति का आयोजन हुआ और इस उपलक्ष्य में एक सम्वत् का प्रचलन किया। ई.पू. प्रथम सदी में उत्तर पश्चिम के स्थल मागों से चीन एवं भारत में रेशम का व्यापार होता था, जिससे भारत में प्रचुर स्वर्ण का आगमन हुआ, अतः कनिष्क ने स्वर्ण मुद्रायें प्रचलित कीं।
कनिष्क का साम्राज्य विस्तार- कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिंध, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के कुछ प्रदेश सम्मिलित थे। इस प्रकार प्राचीन भारत के सभी साम्राज्यों में कुषाण साम्राज्य की बड़ी महत्त्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति थी। इसके पश्चिम में पार्थियन साम्राज्य था एवं रोमन साम्राज्य का उदय हो रहा था।
रोमन तथा पार्थियन साम्राज्यों में परस्पर शत्रुता थी और रोमन चीन से व्यापार हेतु एक ऐसा मार्ग चाहते थे जिसे पार्थिया से होकर न गुजरना पड़े। अत: वे कुषाण साम्राज्य से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखने के इच्छुक थे। पार्थिया का एरियाना प्रदेश कुषाणों के अधिकार में था जिसे वे संभवत: पुनः हस्तगत करना चाहते थे।
इस तरह कुषाण एवं पार्थिया साम्राज्य की सीमायें मिली हुई थीं। दूसरी ओर बैक्ट्रिया पर भी कुषाणों का अधिकार था। व्यापारिक दृष्टि से बैक्ट्रिया की स्थिति बड़ी महत्त्वपूर्ण थी। यहीं से भारत, मध्य एशिया एवं चीन को व्यापारिक मार्ग जाते थे अर्थात् महान सिल्क मार्ग की तीनों मुख्य शाखाओं पर कुषाणों का अधिकार था। यह पार्थिया को सह्य न था।
व्यापारिक विकास के लिए वह मध्य एशिया के व्यापारिक मागों पर नियंत्रण करना चाहता था। इन दोनों कारणों से पार्थिया एवं कनिष्क का युद्ध हुआ। चीनी साहित्य में जिक्र आया है कि नान-सी के राजा ने देवपुत्र कनिष्क पर आक्रमण कर दिया परन्तु उसे इस युद्ध में सफलता नहीं मिली। कनिष्क ने उसे परास्त कर दिया। नान-सी का समीकरण पार्थिया से किया जाता है।
इस तरह महान् सिल्कमार्ग की तीनों मुख्य शाखाओं पर कुषाण साम्राज्य का नियंत्रण था- (अ) कैस्पियन सागर से होकर जाने वाले मार्ग पर; (ब) मर्व से फरात (यूफ्रेट्स) नदी होते हुए रूम सागर पर बने बन्दरगाह तक जाने वाले मार्ग पर; और (स) भारत से लाल सागर तक जाने वाले मार्ग पर। इस तरह कुषाणों के समय उत्तर-पश्चिम भारत उस समय का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गया।
कनिष्क का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध चीनियों के विरुद्ध हुआ। परिणामस्वरूप उसे काशगर, खोतान तथा यारकंद प्राप्त हुए। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि चीन के विरुद्ध अभियान कनिष्क के कार्यकाल की घटना थी और महाराज होती (सन् 89-105 ई.) के सेनापति पान-चाँऊ द्वारा पराजित राजा कदाचित स्वयं कनिष्क ही था।
नि:संदेह यह तर्क दिया जाता है कि- कनिष्क एक उच्चकोटि का राजा था और यदि चीनी सेनापति द्वारा वह पराजित किया गया होता तो इसका उल्लेख चीनी इतिहासकार अवश्य ही करते। रायचौधरी ने आगे है कि कनिष्क ही पान-चाँऊ का विरोधी था क्योंकि हम जानते हैं कि से युद्ध किया था। परन्तु वीमा के सम्बन्ध में यह बात नहीं कही क्योंकि चीनी इतिहासकारों ने ऐसे किसी युद्ध का उल्लेख नहीं किया।
एस. लेवी ने कनिष्क की मृत्यु के सम्बन्ध में जो लोककथा प्रकाशित की है एक महत्त्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार दिया गया हैं- मैंने तीन प्रदेशों को जीत लिया है, सभी मेरी शरण में है, परन्तु उत्तरी प्रदेश के लोगों की अधीनता स्वीकार नहीं की है। इस घटना से क्या यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते उसके उत्तरी पड़ोसी ने ही उसे हराया था।
संभवत: कनिष्क अपनी पराजय को भुला नहीं पाया। अत: कश्मीर विजय के पश्चात् पामीर की उपत्यकाओं से होता हुआ वह स्वयं एक दूसरी सेना लेकर युद्ध के लिए जा पहुँचा। इस समय तक पान चाऊ की मृत्यु हो गई थी। उसके पुत्र पान-यंग के विरुद्ध उसकी विजय हुई।
कुषाण नरेश ने इस तरह पुरानी पराजय का बदला लिया और चीन के एक सामन्त राज्य को जमानत देने को बाध्य किया। कहा जाता है कि इस जमानत में हान सम्राट् का पुत्र भी सम्मिलित था। यद्यपि यह अधिक समीचीन नहीं जान पड़ता। जमानत स्वरूप लाये गये राजकुमारों के प्रति विशेष आदर का भाव रखा गया।
ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि कनिष्क का साम्राज्य सुंग-लिंग पर्वत के पूर्व में भी विस्तृत था और पीली नदी के पश्चिम में रहने वाली जातियाँ उससे भयभीत हो गई थीं तथा उन्होंने अपने राजकुमारों को कनिष्क के दरबार में बंधक के रूप में भेज दिया था। उसे संगु-लिंग के प्रदेश मिले जिसका अभिप्राय चीनी तुर्किस्तान से है जिसमें यारकन्द, खोतान और काशगर हैं। उल्लेखनीय है कि कनिष्क के दूसरे आक्रमण और उसकी विजय का वर्णन एक मात्र ह्वेनसांग ने ही किया है।
अत: अनेक विद्वान् इस विवरण को विश्वसनीय नहीं मानते हैं। डी.सी. सरकार ने चर्चा की है कि चीनी तुर्किस्तान से खरोष्ठी में विवरण प्राप्त हुआ है जिससे कुषाण शासन के संकेत मिलते हैं। शाही उपाधि देवपुत्र एवं कुषाणसेन नाम मिलते हैं और खरोष्ठी लिपि एवं प्राकृत भाषा को संभवत: कुषाण शासन के दौरान इन क्षेत्रों में प्रचलित किया।
विद्वानों ने कनिष्क के साम्राज्य-विस्तार का विवेचन साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर करने का प्रयास किया है। कुजुल कदफिसेस के समय से ही बैक्ट्रिया कुषाण साम्राज्य के अन्तर्गत था। कनिष्क ने इस विम कदफिसेस उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया। इसके कोई प्रमाण नहीं हैं कि बैक्ट्रिया कनिष्क के हाथ से निकल गया था। दूसरी ओर बैक्ट्रिया पर कनिष्क के आधिपत्य के कुछ प्रमाण भी मिले हैं। खोतान में एक पाण्डुलिपि उपलब्ध हुई है जिसमें चन्द्र कनिष्क को बहुलक का राजा कहा है। चन्द्र कनिष्क का समीकरण कनिष्क एवं बहुलक का तादात्म्य बैक्ट्रिया से किया जाता है। वार्दक (काबुल) अभिलेख से ज्ञात होता है कि अफगानिस्तान के कुछ भाग पर हुविष्क का अधिकार था। संभवतः अफगानिस्तान की विजय स्वयं हुविष्क ने नहीं की होगी। यह प्रदेश कनिष्क के समय से ही कुषाण साम्राज्य में चला आ रहा था। तिब्बती मूल के लोगों के काबुल में होने का उल्लेख अलबेरुनी ने किया है।
ह्वेनसांग के विवरण और अन्य चीनी ग्रंथों से जानकारी मिलती है कि गान्धार कनिष्क के अधिकार में था जो तत्कालीन कला का प्रख्यात केन्द्र था। इस काल में एक विशिष्ट कला प्रणाली का विकास हुआ जिसे गांधार कला के नाम से अभिहित किया जाता है। रावलपिण्डी के पास स्थित माणिक्याल से कनिष्क के 18वें वर्ष का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है।
राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर कनिष्क के साम्राज्य का एक अंग था। यहाँ उसने कनिष्कपुर नामक नगर की स्थापना की थी एवं एक स्तम्भ भी खड़ा करवाया था जो आज भी उसके नाम से विख्यात है। सुई विहार (बहावलपुर) अभिलेख सिन्ध क्षेत्र के कनिष्क के अधीन होने का संकेत देता है। जैदा (पंजाब में उन्ड के समीप) अभिलेख पंजाब में उसके अधिकार को निर्देशित करता है।
टालेमी का कथन है कि पूर्वी पंजाब पर कुषाणों का शासन था, उसने पंजाब पर कनिष्क के अधिकार का भी उल्लेख किया है।
उत्तरी भारत में मथुरा, श्रावस्ती, कोशाम्बी एवं सारनाथ से कनिष्क के अभिलेख प्राप्त हुए हैं। सारनाथ लेख में उसके शासनकाल के तीसरे वर्ष का उल्लेख आया है। उसकी मुद्रायें आजमगढ़, गोरखपुर से प्राप्त हुई हैं। कनिष्क कालीन मूर्तियां भी मथुरा, कौशाम्बी, सारनाथ, श्रावस्ती आदि स्थानों से मिली हैं।
मध्य भारत में विलासपुर तथा अन्य स्थानों से कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों की मुद्रायें मिली हैं। साँची से ऐसी मूर्तियां प्राप्त हुई हैं जो मथुरा शैली की हैं तथा उन पर कुषाण राजाओं के नाम उत्कीर्ण हैं। मजूमदार ने दक्षिण में विंध्य क्षेत्र तक कुषाण साम्राज्य के विस्तृत होने का उल्लेख किया है। कनिष्क के साम्राज्य में अफगानिस्तान, बैक्ट्रिया, काशगर, खोतान (खुतन) एवं यारकन्द सम्मिलित थे।
भारतीय प्रदेशों में पंजाब, कश्मीर, सिन्ध, आधुनिक उत्तरप्रदेश, उसके साम्राज्य के अंग थे। पेशावर कनिष्क की राजधानी थी जो अफगानिस्तान से सिन्ध घाटी की जाने वाले प्रमुख राजपथ पर स्थित थी। पेशावर (पुरुषपुर) के अनेक भव्य भवनों, सार्वजनिक शालाओं और बौद्ध विहारों के अलंकृत होने की जानकारी मिलती है। विहारों में एक अत्यन्त भव्य विहार बौद्ध तीर्थ के रूप में नवीं सदी तक विद्यमान था। बौद्ध विद्वान् वीरदेव ने उसकी यात्रा की थी जो मगध नरेश देवपाल (लगभग 845-92 ई.) के समय नालन्दा का महास्थविर निर्वाचित किया गया था।
उस स्थान पर कनिष्क का बनवाया हुआ लकड़ी का विशाल धातु प्रासाद कई शताब्दियों तक लोगों के कौतूहल और प्रशंसा का भाजन रहा। विहार के साथ एक काष्ठ स्तम्भ भी बनवाया, उसमें बुद्ध की अस्थियाँ सुरक्षित की गई।
कनिष्क का शासन-प्रबन्ध- कनिष्क एक सफल विजेता, बौद्ध धर्म का उत्साही प्रचारक और योग्य प्रशासक था। यद्यपि कनिष्क के शासन-प्रबन्ध के विषय में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध नहीं है किन्तु जो कुछ भी उपलब्ध है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि कनिष्क की शासन-व्यवस्था सुव्यवस्थित थी। कुछ समय पूर्व मध्य एशिया में सोवियत पुरातत्व वेत्ताओं द्वारा जो शोध-कार्य हुए उनसे कनिष्क के शासन-प्रबन्ध की विविध कड़ियों को जोड़ने में कुछ सहायता मिली।
इस प्रकार उपलब्ध सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि कनिष्क ने छत्रप-प्रणाली लागू की थी। सारनाथ अभिलेख से कनिष्क के महाक्षत्रप खरपलान और क्षत्रयपन का पता चलता है। शकों की भाँति उसने अपने विशाल साम्राज्य को विभिन्न प्रान्तों में विभाजित किया और उनके शासन के लिए महाक्षयों और क्षत्रयों को नियुक्त किया। उत्तर-पश्चिम में लल्ल और लाइफ (लिआक) इसके राज्यपाल थे। साम्राज्य के अन्य दूरवर्ती प्रान्त भी क्षत्राप प्रणाली द्वारा शासित थे। क्षत्रयों के ऊपर महाक्षत्रय होते थे।
शासन का स्वरूप सैनिक तथा सामंतवादी था। वि-सेण्ट स्मिथ के अनुसार महाराष्ट्र सहरातवंशी नहयान और उज्जैन का क्षत्रय चष्टन कदाचित् कनिष्क के सामन्त थे। कनिष्क की राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी। उसने अपनी राजधानी को अनेक भव्य भवनों, सार्वजनिक शालाओं और बौद्ध बिहारों से समलंकृत किया था। कश्मीर की कनिष्कपुर नगरी को भी सम्भवत: उसने ही बसाया था। परन्तु डॉ. हेमचन्द राय चौधरी का विचार है कि इस नगर की स्थापना अभिषेक वाले कनिष्क के द्वारा कराई गई थी।
इस प्रकार चतुर्थ बौद्ध संगीति में तत्कालीन बौद्ध दर्शन को युगानुसार परिष्कृत करने का प्रयास किया गया। बौद्ध धर्म को नई दृष्टि से लिपिबद्ध करने में संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया। इस संगीति का अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य था। सम्राट् कनिष्क द्वारा बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राजधर्म के रूप में प्रतिष्ठापित करना तथा कनिष्क का उसका संरक्षक बनना। कहा जाता है कि इस अधिवेशन में हीनयान शाखा को भी पुनर्गठित किया गया तथा 18 उपसम्प्रदायों के विवादों को हल करने का प्रयास किया गया।
इतिहासकार ने कनिष्क द्वारा आहूत चतुर्थ बौद्ध संगीति की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है बौद्ध धर्म के इतिहास के कनिष्क के राजत्व काल में होने वाली चतुर्थ संगीति का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह संगीति बौद्ध धर्म के इतिहास में एक नए युग का प्रवर्त्तन करती है। यह नव युग था महायान का उदय जो हीनयान के प्रारम्भिक बौद्ध धर्म से उतना ही भिन्न है जितना कि मध्यकालीन ईसाई धर्म प्रथम शताब्दी ईसवी के ईसाइयों के सरल सिद्धान्तों से भिन्न है।
कनिष्क का मूल्यांकन- प्राचीन भारत के इतिहास में कुषाण-सम्राट् कनिष्क को अपना स्थान है। अपनी सफलताओं के कारण उसकी तुलना जहाँ मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य से की जाती है। वहाँ बौद्ध धर्म में निष्ठा और धर्म-प्रचार के लिए किए गए कार्यों की दृष्टि से उसकी तुलना सम्राट् अशोक से की जाती है। सम्राट् को एक सफल सेनानी और पराक्रमी योद्धा होना चाहिए।
कनिष्क में ये दोनों गुण विद्यमान थे। जब वह सिंहासन पर बैठा, उसके साम्राज्य अफगानिस्तान में सिंध का बड़ा भाग, पार्थिया, बैक्ट्रिया और पंजाब के कुछ हिस्से थे। बाद में उसने चीन के साम्राज्य पर आक्रमण कर खोतान, कारागर तथा सारकन्द पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। प्रो. सधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार उसका साम्राज्य भारत में कपिशा, गंधार, सिंध और मालवा से लेकर पाटलिपुत्र तक था।
अपनी धार्मिक सहिष्णुता और बौद्ध धर्म में आस्था के कारण कनिष्क ने अशोक की भाँति एक धर्म प्रचारक की ख्याति अर्जित की। उसने कश्मीर में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन किया। इस संगीति में उसने बौद्ध धर्म के उपदेशों, नियमों और सिद्धान्तों को युगानुरूप परिष्कृत और संपादित कराकर महाविभाषा नामक भाष्य तैयार कराया। चिपिटक पर एक प्रामाणिक भाष्य की रचना कराई। ग्रन्थों के नवीन लिपिकरण में उसने संस्कृत भाषा का प्रयोग कराया।
बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राजधर्म घाषित किया। महायान में उन तत्वों का समावेश किया गया जिनके द्वारा जनसाधारण की ज्ञान-पिपासा शांत और परितृप्त हो सकती थी। इससे विदेशों में भी बौद्ध धर्म के प्रचार का कार्य सुगम हो गया।
अशोक की भाँति कनिष्क साहित्य और कला का अनुरागी था। उसकी राजसभा को अनेक विद्वानों ने सुशोभित किया। इन विद्वानों में बौद्ध दार्शनिक वसुमित्त, अश्वघोषा पार्श्व और नागार्जुन मुख्य आयुर्वेद के महान् ग्रंथ चरक संहिता के रचयिता आयुर्वेद के सुविख्यात विद्वान् चरक का भी वह आश्रयदाता था।
अश्वघोष ने बुद्धचरित, सौन्दरानन्द तथा सारिपुत्र प्रकरण नाम उत्कृष्ट रचनाओं का प्रणयन किया था। नागार्जुन शून्य वाद का प्रवर्त्तक और प्रज्ञापारमिता सूत्र का रचयिता था। मध्यमक कारिका और सुहृलोखा उसकी दो अन्य विख्यात रचनाएँ हैं।
कनिष्क ने वास्तुकला को भी प्रोत्साहित किया। उसमें भवन-निर्माण का शौक था। उसके संरक्षण में उस युग में स्थापत्य और मूर्ति-कला को अच्छा प्रोत्साहन मिला। कश्मीर में उसने कनिष्कपुर नामक एक नगर बसाया। कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि- कनिष्क ने कश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रचार किया और वहाँ बौद्ध, मठ, विहम् तथा स्तूप स्थापित किए। पुरुषपुर अथवा पेशावर में उसने एक बौद्ध संघाराय का निर्माण कराया था। यह बौद्ध विहार एक बौद्ध तीर्थ के रूप में नवीं शताब्दी तक विद्यमान था जबकि बौद्ध विद्वान् वीरदेव ने उसकी यात्रा की थी।
वीरदेव नालन्दा का महास्थविर था। उसने पुरुषपुर में एक टॉवर बनाया। इसी के समीप एक सुन्दर बौद्ध विहार का निर्माण भी किया था। फाहियान, ह्वेनसांग और अलबेरूनी ने इसे कनिष्क चैत्य कहा है। उसने अपने साम्राज्य के प्रसिद्ध केन्द्र पेशावर, तक्षशिला, मथुरा आदि अनेक नगरों को सुसज्जित कराया। कनिष्क को कलाप्रियता और महायान धर्म में मूर्ति पूजा ने मूर्ति-निर्माण कला को प्रोत्साहित किया। कनिष्क के संरक्षण में गांधार-शैली का विकास। हुआ यह ग्रीकों-रोमन कला की एक शाखा है। इसे यूनानी बौद्ध कला कहा जाता है। गांधार शैली की मूर्ति कला गौतम के जीवन के सजीव चित्र उपस्थित करती है।
पेशावर गांधार शैली की कला का मुख्य केन्द्र था। गांधार कला-शैली के अतिरिक्त मथुरा-कलाशैली का भी विकास हुआ। मथुरा कला-शैली में लाल पत्थरों का प्रयेाग हुआ।
देश के कुछ संग्रहालयों में सुरक्षित गांधार कला की अनेक कलाकृतियाँ कुषाण-शासकों की कलाप्रियता की मूक साक्षी के रूप में विद्यमान हैं।
कनिष्क के उत्तराधिकारी- कनिष्क की मृत्यु कैसे हुई। इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना सम्भव नहीं है। कुछ दंत कथाओं के अनुसार उसके सेनापतियों ने उसके विरुद्ध षड्यंत्र कर उसका अंत कर दिया। अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार उसने 23 वर्षों तक शासन किया। इस प्रकार उसका निधन (7823) 100 ई. में हुई। कनिष्क के उत्तराधिकारी उसके समान योग्य और शक्तिशाली नहीं थे। कनिष्क उत्तराधिकारियों में वाशिष्क हुआ किन्तु उसके विषय में इतिहास में अपेक्षित सामग्री उपलब्ध नहीं।
वाशिष्क के बाद हुविस्क उत्तराधिकारी हुआ। हुविष्क ने कश्मीर में हुष्कपुर नामक नगर बसाया था। हुविष्क एक शक्तिशाली शासक था। उसने कनिष्क द्वारा स्थापित साम्राज्य की रक्षा की। उसके द्वारा चलाए हुए अनेक सिक्के मिले हैं। हुविष्क ने 30 वर्षों तक शासन किया।
उसके बाद वासुदेव शासक बना। उसका राजत्व-काल 145-176 ई. माना जाता है। वासुदेव कुषाणवंश का अंतिम शासक था।