1191 ई. – तराइन का पहला युद्ध...

 1191 ई. – तराइन का पहला युद्ध :- हम्मीरमहाकाव्य में लिखा है कि “जब पृथ्वीराज अपनी प्रजा पर न्यायपूर्ण शासन कर रहा था और अपने शत्रुओं को भयभीत किए हुए था, तब शहाबुद्दीन विश्व विजय के प्रयासों में लगा हुआ था। शहाबुद्दीन के हाथों प्रताड़ित होकर पश्चिम के भूमिहारों ने चंद्रराज को अपना प्रमुख बनाया और वे सब पृथ्वीराज के पास पहुंचे।”

हम्मीरमहाकाव्य में आगे लिखा है कि “पृथ्वीराज ने उनके मुख देखकर क्लेश का कारण पूछा, तब चंद्रराज ने कहा कि शहाबुद्दीन नामक एक शक राजाओं का विनाश कर रहा है। वह हमारे नगरों को लूट रहा है और मंदिरों का विध्वंस कर रहा है। शहाबुद्दीन से हमारी भूमि बचाने के लिए सभी राजागण आपसे सहायता की आस लिए आए हैं।”
सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने विचार किया कि दिन-दिन सुल्तान की शक्ति बढ़ती जा रही है, अगर इस वक्त उसे नहीं रोका, तो गज़नी से दोबारा आकर वह हावी हो सकता है।
शहाबुद्दीन गौरी गज़नी की तरफ जाने की फ़िराक़ में था, लेकिन उसे ख़बर मिली कि अजमेर के सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने कई राजाओं की फ़ौजें मिलाकर तबरहिन्द (भटिंडा) के किले की तरफ कूच किया है।
सम्राट के साथ कैमास, उदयराज, स्कन्द, भुवनैकमल्ल भी थे। फिरिश्ता के अनुसार सम्राट पृथ्वीराज की फौज में 3 लाख पैदल सैनिक और 3000 हाथी थे। पृथ्वीराज प्रबंध के अनुसार सम्राट की फौज में 2 लाख सैनिक व 5000 हाथी थे। आधुनिक इतिहासकार इतनी भारी फौज के आंकड़ों को सही नहीं मानते।
गौरी ने ख़बर सुनते ही राजपूतों को मार्ग में ही रोकने के लिए तराइन के मैदान में पड़ाव डाला। गौरी की फौज में मुख्य सेनापतियों में कुतुबुद्दीन ऐबक भी था। तराइन के प्रथम युद्ध में सम्राट ने गजसेना को मध्य में रखा और गजसेना के दायीं व बायीं तरफ अश्व सेनाओं को रखा। पैदल सेना को गजसेना के पीछे रखा। गजसेना के बीच में सम्राट स्वयं एक गज पर तीर-कमान व भाले के साथ युद्ध का नेतृत्व कर रहे थे।
दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर भी हाथी पर विराजमान थे। शहाबुद्दीन गौरी ने भी ठीक इसी तरह अपनी फ़ौजों को जमाया, लेकिन उसके पास हाथियों की संख्या सम्राट के हाथियों से आधी भी नहीं थी। वह खुद एक घोड़े पर बैठकर युद्ध का नेतृत्व कर रहा था।
यह लड़ाई संभवतः 1191 ई. के जनवरी माह में हुई। सम्राट की तरफ से लड़ते हुए प्रतापसिंह बड़गूजर वीरगति को प्राप्त हुए। इस लड़ाई में गौरी बरछा लेकर घोड़े पर सवार था। हाथी पर सवार दिल्ली के राजा चाहड़पाल तोमर का सामना गौरी से हुआ। गौरी ने राजा पर बरछा चलाया, जिससे बरछा राजा के कंठ तक चला गया और 2 दांत गिर गए।
फिर राजा चाहड़पाल ने भी ज़ख्मी हालत में बरछा चलाया, जिससे सुल्तान की बाज़ू पर गहरा घाव लगा और घोड़े से गिरने ही वाला था कि तभी एक खिलजी सिपाही ने फ़ौरन सुल्तान के घोड़े पर सवार होकर उसको संभाला और घोड़ा भगाकर उसे युद्धभूमि से बाहर ले गया।
जीवनदान की धारणा :- यह धारणा प्रचलित है कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को जीवनदान दिया। यही बात बढ़ा चढ़ाकर लिखकर बहुत से लेखकों ने सम्राट को एक नासमझ योद्धा करार दिया, जबकि हक़ीक़त ये थी कि गौरी को सुरक्षित वहां से बचा लिया गया था, वरना निश्चित रूप से गौरी का वध किया जाता।
इस विषय में एक तर्क ये है कि सम्राट ने इस युद्ध की पहल ही इसीलिए की थी ताकि गौरी को मारकर संभावित आक्रमणों को रोका जा सके। सम्राट ने नागार्जुन से लड़ाई के वक्त भी अपने संबंधी विद्रोहियों को कठोर दंड देते हुए उनके सिर काटकर अजयमेरु दुर्ग के बाहर वाले मैदान में लटका दिए थे, तो सम्राट द्वारा क्रूर आक्रमणकारी गौरी को जीवनदान देना असंभव था।
कई राजाओं के संघ ने तराइन की लड़ाई से पूर्व सम्राट से गौरी के वध का निवेदन किया था। यदि सम्राट गौरी को जीवित छोड़ देते, तो वे राजा-महाराजा जो सम्राट के अधीन न होने के बावजूद भी तराइन की लड़ाई में उनके साथ थे, वे दोबारा तराइन की दूसरी लड़ाई में हरगिज़ सम्राट का साथ न देते।
अज्ञानवश बहुत से राजपूत भी जीवनदान वाली बातें लिखकर सम्राट के उच्च आदर्शों को दिखाने के चक्कर में अनजाने में ही सम्राट को नासमझ करार दे देते हैं, जिससे वामपंथी इतिहासकारों को मौका मिल जाता है।
बहरहाल, तराइन की इस लड़ाई में सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने सुल्तान शहाबुद्दीन गौरी को करारी शिकस्त दी। गौरी ने जान बचाकर भागने में गनीमत समझी। गौरी ने लाहौर में अपने घावों का इलाज करवाया और फिर गज़नी लौट गया।
गौरी की पराजय का प्रमुख कारण :- सम्राट के हाथियों ने गौरी के हाथियों को पीछे हटने पर विवश कर दिया, जिससे गौरी के अश्व घबरा गए और अश्व अपने सवारों समेत भागने लगे। सम्राट के हाथियों की संख्या गौरी के हाथियों की तुलना में दुगुने से भी अधिक थी। सम्राट के हाथियों ने इस लड़ाई में शत्रुओं पर कहर बरपाया था।
कैमास वध :- 1191 ई. में सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने अपने संरक्षक व सेनापति कैमास को मार दिया। ग्रंथों से 3 अलग-अलग कारण जानने को मिले :- 1) पृथ्वीराज प्रबंध के अनुसार यह हत्या इसलिए की गई, क्योंकि कैमास शहाबुद्दीन गौरी से मिल चुका था।
2) कुछ अन्य इतिहासकारों का मानना है कि 1182 ई. के बाद कैमास ने अपनी मनमानी करना शुरू कर दिया, जिससे सम्राट और उसके बीच तनाव बढ़ता गया और इसी कारण सम्राट ने उसकी हत्या की।3) सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सेनापति स्कंद के पौत्र लक्ष्मीधर ने विरुद्ध-विधि-विध्वंस नामक ग्रंथ में सम्राट को बाल्यकाल में योजनापूर्वक तरीके से विलासिता की घुट्टी पिलाने की बात लिखी गई है। सम्राट के अंदर यह चित्तविकार कैमास द्वारा अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उत्पन्न किया गया था। इस घटना का उल्लेख पृथ्वीराज विजय व कान्हड़दे प्रबंध में भी मिलता है।तात्पर्य ये है कि कैमास का चाल चलन निश्चित रूप से अनुचित रहा होगा। सम्राट ने बाल्यावस्था को पार करते ही इस चित्तविकार पर नियंत्रण पा लिया था और जब धीरे-धीरे उन्हें कैमास के मन के मैल का पता लगा होगा, तब उसे मार दिया गया।
1191-92 ई. में हुआ तबरहिंद का युद्ध :- तराइन के पहले युद्ध में सुल्तान शहाबुद्दीन गौरी को करारी शिकस्त देने के बाद सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने तबरहिंद के किले पर चढ़ाई की। तबरहिंद भटिंडा का किला था, जो बाद में सरहिंद नाम से भी जाना गया।तबरहिंद के किले पर गौरी ने काजी ज़ियाउद्दीन तोलक को 12 हज़ार की फौज के साथ तैनात कर रखा था। सम्राट ने फौजी जमावट करके किला घेर लिया।13 महीनों तक सम्राट ने घेरा डाले रखा और फिर दोनों फ़ौजों में लड़ाई शुरू हुई। इस लड़ाई में काजी ज़ियाउद्दीन तोलक पराजित हुआ और तबरहिंद के किले पर सम्राट पृथ्वीराज चौहान का अधिकार हुआ। सम्राट पृथ्वीराज चौहान काजी ज़ियाउद्दीन को बंदी बनाकर किले से बाहर ले आए और उसकी सारी धन संपदा छीन ली।
बहुत से इतिहासकारों ने लिखा है कि तराइन की पहली लड़ाई के बाद सम्राट रास-रंग और अभिमान में इतने डूब गए कि तराइन की दूसरी लड़ाई में सम्भल ही नहीं पाए, जबकि हक़ीक़त ये थी कि सम्राट ने तराइन की पहली लड़ाई के बाद 13 महीनों तक घेरा डालकर सरहिंद के किले को फ़तह किया ताकि सुल्तान की शक्ति को और कमज़ोर किया जा सके।गहड़वालों का कोई क्षेत्र लूटना :- सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने अपने सेनापति स्कंद को राजा जयचंद गहड़वाल के किसी क्षेत्र को लूटने के लिए भेजा।
जम्मू पर हमला :- तबकात-ए-नासिरी में लिखा है कि “अपनी फ़तह से ग़ुरूर में डूबे राय पिथौरा ने जम्मू के राजा पर हमला कर दिया।”
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