आदिकाल में ज्योतिष...
आदिकाल में ज्योतिष...
ज्योतिष शास्त्र के जन्म का पता लगाना संभव नहीं है यह मानव सृष्टि के समान ही अनादि काल से ज्योतिष का सिद्धांत है कि एक कल्प काल में 4 अरब 32 करोड़ वर्ष होते हैं सृष्टि प्रारंभ होते ही सभी ग्रह अपनी अपनी कक्षा में नियमित रूप से भ्रमण करते लगते हैं बिना किसी असंतुलन के, मानव प्राचीन काल में सृष्टि के शुरुआत में केवल संकेत की भाषा का ही प्रयोग करता था उसके पास लिखने वाली भाषा का ज्ञान नहीं था विकासवाद बतलाता है कि आरंभ में मनुष्य केवल नाद कर सकता था इसी अस्पष्ट नाद द्वारा अपने सुख-दुख हर्ष पीड़ा आदि भाव प्रदर्शित करता था जब अनुभव और अनुमान ने परस्पर एक दूसरे की सहायता कर मानव जाति की विकसित परंपरा कायम कर दी तो संभाषण यानी वाक शक्ति का आविष्कार हुआ नाद को निरंतर उच्चारण कर विभिन्न भाव, भावनाएं ,विचार और उनके भेदों को क्रम से प्रदर्शित करने की चेष्टा की गई ,ज्ञान के उदय के साथ-साथ नाद शक्ति भी वृद्धि गत होने लगी और धीरे-धीरे भावों के साथ इंगित चेष्टा व्यक्त नाद का आरंभ हुआ इसी बीच में अनुकरण की मात्रा ने प्रकृति प्रदत भाव और विचारों के विनिमय में प्रयोग दिया जिससे मानव ने आज के समान संभाषण की योग्यता प्राप्त की यहां इतना स्मरण रखना होगा कि भाषण की कला के अविष्कार होने पर लिखने की भाषा अभी प्राचीन मानव को अज्ञात ही थी इस समय उसके सारे कार्य मौखिक ही चलते थे वेद शब्द का अर्थ जो शुरू किया गया है वह भी इसी बात का द्योतक है कि प्राचीन मानव का समस्त ज्ञान भंडार मुखाग्नि था उसमें उसके लिपिबद्ध करने की क्षमता नहीं थी मानव की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने पर अवगत होगा कि क्यों और कैसे यह दो जिज्ञासा है उसकी प्रधान है वह प्रत्येक वस्तु के आदि कारण को खोज करता है और उसके संबंध में सभी अद्भुत बातों को जानने के लिए लालायित रहता है जब तक उसकी यह ज्ञान पिपासा शांत नहीं होती उसे चैन नहीं पड़ता ,फलत: आदि मानव के मस्तिष्क में भी विकास के अनंतर ही समय दिशा और स्थान जिनके बिना उसका काम चलना कठिन ही नहीं असंभव था कि संबंध में क्यों और कैसे यह प्रश्न अवश्य उत्पन्न हुए होंगे उन प्रश्नों के उत्तर पाने की चेष्टा भी की होगी यह निश्चित है कि किसी भी प्रकार के ज्ञान का स्त्रोत समय दिशा और स्थान के बिना प्रभावित नहीं हो सकता इसलिए इन तीनों विषयों का ज्ञान ज्योतिष के द्वारा संपन्न होने पर ही अन्य विषयों का ज्ञान मानव जाति को हुआ होगा भारत की अपनी निजी विशेषता अध्यात्मिक ज्ञान की है और इसका संपादन योग क्रिया द्वारा प्राचीन काल से होता चला आ रहा है इस सिद्धांत के अनुसार महा कुंडलिनी नाम की शक्ति समस्त सृष्टि में व्याप्त रहती है और व्यक्ति में यही शक्ति कुंडलिनी के रूप में व्यक्त होती है इसका विश्लेषण इस प्रकार समझना चाहिए कि पीठ में स्थित मेरुदंड यानी रीड की हड्डी सीधे जहां जाकर कमर के मध्य भाग में मिलती है वहां त्रिकोण चक्कर में स्वयंभू लिंग स्थित है इस चक्कर का अन्य नाम अग्नि चक्र भी बताया गया है इस स्वयंभू लिंग को वालयों में लपेटे सर्प की तरह कुंडलिनी अवस्थित है इसके अनंतर मूलाधार ,स्वाधिष्ठान ,मणिपुर, अनहद ,विशुद्धि और आज्ञा यह छे चक्र कर्म से ऊपर उपस्थित है इन चक्रों को भेद करने के बाद मस्तक में शून्य चक्र है जहां जीवात्मा को पहुंचा देना ही योगी का चरम लक्ष्य होता है इस स्थान पर सहस्त्रार चक्र होता है प्राण वायु को वहन करने वाली मेरुदंड से संबंध इडा ,पिंगला, सुषुम्ना ये तीन नाड़ियां हैं इनमें इड़ा और पिंगला को सूर्य और चंद्रमा की नाड़ी भी कहा गया है सुषुम्ना के भीतर वज्रा चित्रिणीऔर ब्रह्मा यह तीनों नाड़ियां कुंडलिनी शक्ति का वास्तविक मार्ग है साधक नाना प्रकार के साधनों द्वारा कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर उठना करता है इस नाद से सूर्य चंद्र और अग्नि रूप प्रकाश होता है इस प्रकार योगी लोग व्यक्ति के अंदर रहने वाली कुंडलिनी को महा कुंडलिनी में मिलाने का प्रयत्न करते हैं जिसको आज के समय में भी ध्यान योग के नाम से अलग अलग तरीके से सिखाने का प्रयास किया जाता है उपरोक्त योग ज्ञान केवल आध्यात्मिक ही नहीं बल्कि ज्योतिष विषयक भी है उक्त योग बल से भारतीयों ने अपने भीतर के रहने वाले सौर जगत को पूर्णतया ज्ञात कर और उसकी तुलना निरीक्षण तथा आकाश मंडल सौर जगत से कर अनेक ज्योतिष के सिद्धांत निकालें जो बहुत समय तक मौखिक रूप में स्थित रहे अनुभव भी बतलाता है कि मानव ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सबसे पहले स्थान, देश, काल, इन तीन के संबंध में जानकारी प्राप्त की होगी क्योंकि किसी से भी पूछा जाएगी हम उस वस्तु कहां स्थित है तो वह यही उत्तर देगा कि अमुक दिशा में है ,वह घटना कब घटी तो वह यही कहेगा कि अमुक समय में , अभिप्राय यह है कि अमुक स्थान से इतना पूर्व अमुक से इतना दक्षिण कितने बज के कितने मिनट पर अमुक कार्य हुआ इतना बतला देने पर उसकी कार्य के विषय की जिज्ञासा शांत हो जाती है ज्योतिष द्वारा इन विषयों का ज्ञान प्राप्त करना ही साध्य माना गया है इसलिए उदय काल में जब ज्योतिष के सिद्धांत लिपिबद्ध किए जा रहे थे इसकी बड़ी प्रशंसा की गई थी स्थान एवं काल बोध शास्त्र होने के कारण इसे जीवन का अभिन्न अंग बनाया गया है हालांकि अंधकार युग का ज्योतिष विषयक साहित्य उपलब्ध नहीं है परंतु तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उस काल का मानव दिन-रात, पक्ष मास ,आयन, वर्ष आदि काल के अंगों से पूर्व परिचित था इस जानकारी के साथ साथ ही उस काल को प्रकट करने वाले चंद्र सूर्य का बोध भी अवश्य होगा ,लिखित प्रमाण के अभाव में उस युग में आकाश मंडल मानव की दृष्टि से ओझल रहा हो यह मानने की बात नहीं है इस पृथ्वी पर जन्म लेते ही उसने अपने चक्षुओं के द्वारा आकाश का रहस्य अवश्य ज्ञात कर लिया होगा ,प्राणीशास्त्र बतलाता है कि आदिमानव अपने योग और ज्ञान द्वारा आयुर्वेद एवं ज्योतिष शास्त्र के मौलिक तत्व को ज्ञात कर भौतिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था .
Politicsexpertt Vlogspot 🌺🙏