राव बिकाजी....

       राव बिकाजी....



 पहले जब कभी हम कलकत्ता, बम्बई और रंगून आदि नगरों की सैर करने जाते थे तो वहाँ पर हमें अधिकतर व्यापारी मनुष्य दिखाई देते थे । सिर पर पगड़ी बांधे हुये अपनी अपनी फर्मो में डटे बैठे । न वे अंग्रेजी के पंडित हैं न संस्कृत के आचार्य, पर लक्ष्मी उनकी दास बनी हुई है। लाखों का वारा-न्यारा नित्य करते हैं और सारे भारत का व्यापार हाथ में लिये हुये हैं।

क्या आप जानते है ये कौन हैं ? ये सब भारत में ’मारवाड़ी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनमें से अधिकांश मारवाड़ राज्य से बाहर के अर्थात् बीकानेर राज्य के हैं । इस नगर क स्थापना करने वाले राव बीकाजी की बहुआयामी सोच कारण ही बीकानेर सेठो का राज्य बन पाया था । जब व्यापार को सरंक्षण प्राप्त होता हैं तब उस राज्य के विकास को कोई नहीं रोक सकता ।
हम जोधाजी के पाठ में बतला चुके हैं कि राव जोधाजी की बात राव बीकाजी के चित्त में बहुत खटकी, अतएव वे सेना और कुछ सरदारों के साथ मातृभूमि छोड़ने को कटिबद्ध हुये। जोधपुर से चल कर वे पहले पहल जांगलू में पहुँचे। वहाँ पर एक साँखला जाति निवास करती थी।
उससे इनको युद्ध करना पड़ा। दोनों सेनाओं में खासी मुठभेड़ हो गई। पर अन्त में सांखला लोग हार गये। इसलिए वह सारा प्रदेश वीरवर बीकाजी के हाथ आ गया। इस विजय से इनका साहस दूना हो गया, अतएव इनकी तलवारों की झनकार से दिशायें गूंट उठीं।
तत्पश्चात् आप अपनी वीर राजपूती सेना लेकर पुंगल देश में पहुँचे। वहाँ के राजा को बीकाजी के प्रबल पराक्रम का हाल मालूम हो चुका था इसलिए उसने सोचा कि राव बीकाजी से झगड़ा करने में कोई लाभ नहीं। उसने अपनी लड़की का विवाह राव बीकाजी के साथ कर दिया। इस कारण इन्होंने भाटी राजपूतों की स्वतंत्रता में दखल न दिया।
राव बीकाजी अब विवाह कर चुके थे इसलिए उन्हें रहने के लिए स्थान की आवश्यकता हुई। बस, उन्होंने उसी समय कोड़मदेसर का किला बनवाना आरम्भ किया। जब वह बन कर तैयार हो गया, तो आप वहाँ अपने साथियों सहित आनन्द से रहने लगे।
उन दिनों वहाँ जाटों की तूती बोल रही थी।
यह जाति बड़ी प्रबल और देश का बहुत सा भाग दबाये हुये थी। राव बीकाजी ने सोचा कि जब तक जाट लोग अपने अधिकार में न आयेंगे राज्य का दृढ़ होना कठिन है। इधर ये सोच ही रहे थे, तब तक उधर जाटों में आपस में फूट हो गई।
अतएव बहुत से जाट मिलकर बीकाजी की शरण में आ गये, क्योंकि वे जानते थे कि राव बीकाजी को परास्त करना लोहे के चने चबाना है। राव बीकाजी ने यह सुअवसर हाथ से जाने न दिया। उन्होंने जाटों का बड़ा सत्कार किया और उन्हें राजतिलक करने का अधिकार दिया। इसी हेतु अब तक बीकानेर-नरेश का राज-तिलक जाट लोग ही अपने हाथ से करते हैं।
जिस स्थान पर अब बीकानेर नगर बसा हुआ है, वह पहले जाटों के अधीन था। उनके सरदार का नाम नेरा था। जब राव बीकाजी ने राजधानी बसाने के लिए यह स्थान नेरा से माँगा तब उसने कहा कि आप प्रसन्नतापूर्वक नगर बसाइये किन्तु उसका नाम आप ऐसा रखिये जिससे आपका और मेरा दोनों का नाम आ जावे। बीकाजी ने उसकी शर्त मान ली। अतएव नगर का नाम ’बीका’ और ’नेर’ के नाम से ’बीकानेर’ रक्खा गया।
राव बीकाजी बड़े पराक्रमी तथा साहसी पुरूष थे। उन्हें अपने पुरूषार्थ का बड़ा भरोसा था। उनका विश्वास था कि राज्य माँगने से नहीं मिलता, वह तो भुजाओं के बल से और तलवारों की चोटों से प्राप्त होता है। अतः उन्होंने वैसा ही प्रत्यक्ष करके दिखा दिया। आपने जोहियां जाटों को भी परास्त कर अपने राज्य का विस्तार बढ़ाया। इस प्रकार राव बीकाजी अपने पिता के समान एक नवीन राज्य की नींव डाल कर, किला बनवा कर और नगर बसा कर अपना नाम अमर कर गये।